पौराणिक काल की दस दैवीय वस्तुओ का रहस्य

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पौराणिक काल की दस दैवीय वस्तुओ का रहस्य
Posted May 22, 2020

पौराणिक काल की दस दैवीय वस्तुओ का रहस्य !!!!!!
भारत देश को योग, ध्यान, अध्यात्म, रहस्य और चमत्कारों का देश माना जाता है। वेद, पुराण, रामायण और महाभारत में ऐसी हजारों घटनाक्रम और वस्तुओं के बारे में वर्णन मिलता है जिन पर आधुनिक युग में शोध जारी है। चमत्कार और विज्ञान की ऐसी-ऐसी अजीब बातें हैं जिनमें से कुछ की वैज्ञानिक पुष्‍टि होने के बाद उन पर अब सहज ही विश्वास किया जाने लगा है।
प्राचीनकाल में ऐसी वस्तुएं थीं जिनके बल पर देवता या मनुष्य असीम शक्ति और चमत्कारों से परिपूर्ण हो जाते थे। उन वस्तुओं के बगैर व्यक्ति खुद को असहाय मानता था। कहते हैं कि ऐसी वस्तुएं आज भी किसी स्थान विशेष पर सुरक्षित रखी हुई हैं।आओ जानते हैं उन्हीं में से 10 चमत्कारिक वस्तुओं के बारे में।हो सकता है कि आप ढूंढें या तपस्या करें तो आपको भी ये वस्तुएं मिल जाएं।
1- कल्पवृक्ष : - वेद और पुराणों में कल्पवृक्ष का उल्लेख मिलता है। कल्पवृक्ष स्वर्ग का एक विशेष वृक्ष है। पौराणिक धर्मग्रंथों और हिन्दू मान्यताओं के अनुसार यह माना जाता है कि इस वृक्ष के नीचे बैठकर व्यक्ति जो भी इच्छा करता है, वह पूर्ण हो जाती है।
पुराणों में इस वृक्ष के संबंध में कई तरह की कथाएं प्रचलित हैं। इसके अलावा कुछ विद्वान मानते हैं कि पारिजात के वृक्ष को ही कल्पवृक्ष कहा जाता है। पद्मपुराण के अनुसार पारिजात ही कल्पतरु है, जबकि कुछ का मानना है यह सही नहीं है। पुराण तो बहुत बाद में लिखे गए। दरअसल, कल्पवृक्ष को कल्पवृक्ष इसलिए कहा जाता है कि इसकी उम्र एक कल्प बताई गई है। एक कल्प 14 मन्वंतर का होता है और एक मन्वंतर लगभग 30,84,48,000 वर्ष का होता है। इसका मतलब कल्प वृक्ष प्रलयकाल में भी जिंदा रहता है।
पुराणों के अनुसार समुद्र मंथन के 14 रत्नों में से एक कल्पवृ‍क्ष की भी उत्पत्ति हुई थी। समुद्र मंथन से प्राप्त यह वृक्ष देवराज इन्द्र को दे दिया गया था और इन्द्र ने इसकी स्थापना 'सुरकानन वन' (हिमालय के उत्तर में) में कर दी थी। माना जाता है कि धरती के किसी न किसी कोने में आज भी कल्पवृक्ष कहीं न कहीं जरूर होगा। हो सकता है कि यह हिमालय के किसी दुर्गभ स्थान पर मिले।
2 - अक्षय पात्र : - अक्सर यह चमत्कारिक अक्षय पात्र प्राचीन ऋषि-मुनियों के पास हुआ करता था। अक्षय का अर्थ जिसका कभी क्षय या नाश न हो। दरअसल, एक ऐसा पात्र जिसमें से कभी भी अन्न और जल समाप्त नहीं होता। जब भी उसमें हाथ डालो तो खाने की मनचाही वस्तु निकाली जा सकती है।
महाभारत में अक्षय पात्र संबंधित एक कथा है। जब पांचों पांडव द्रौपदी के साथ 12 वर्षों के लिए जंगल में रहने चले गए थे, तब उनकी मुलाकात कई तरह के साधु-संतों से होती है। कुटिया बनाकर रहने के बाद उनके यहां भ्रमणशील साधु-संतों के जत्थे के जत्थे उनसे मिलने के लिए या कुटिया में प्रवास करने के लिए आते थे।
अब पांचों पांडवों सहित द्रौपदी के समक्ष यही प्रश्न होता था कि वे 6 प्राणी अकेले भोजन कैसे करें और उन सैकड़ों-हजारों के लिए भोजन कहां से आए?
तब पुरोहित धौम्य उन्हें सूर्य की 108 नामों के साथ आराधना करने के लिए कहते हैं। युधिष्ठिर इन नामों का बड़ी आस्था के साथ जाप करते हैं। अंत में भगवान सूर्य प्रसन्न होकर युधिष्ठिर के पास प्रकट होकर पूछते हैं कि इस पूजा-अर्चना का आशय क्या है?
युधिष्ठिर कहते हैं कि हे प्रभु! मैं हजारों लोगों को भोजन कराने में असमर्थ हूं। मैं आपसे अन्न की अपेक्षा रखता हूं। किस युक्ति से हजारों लोगों को खिलाया जाए, ऐसा कोई साधन मांगता हूं।
तब सूर्यदेव एक ताम्बे का पात्र देकर उन्हें कहते हैं- 'युधिष्ठिर! तुम्हारी कामना पूर्ण हो। मैं 12 वर्ष तक तुम्हें अन्नदान करूंगा। यह ताम्बे का बर्तन मैं तुम्हें देता हूं। तुम्हारे पास फल, फूल, शाक आदि 4 प्रकार की भोजन सामग्रियां तब तक अक्षय रहेंगी, जब तक कि द्रौपदी परोसती रहेगी।' ताम्बे का वह अक्षय पात्र लेकर युधिष्ठिर प्रसन्न हो जाते हैं।
कथा के अनुसार द्रौपदी हजारों लोगों को परोसकर ही भोजन ग्रहण करती थी, जब तक वह भोजन ग्रहण नहीं करती, पात्र से भोजन समाप्त नहीं होता था। जनश्रुति के अनुसार इसी तरह का अक्षय पात्र आज भी हिमालय के साधुओं के पास है। यह पात्र सूर्य की साधना से ही प्राप्त होता है।
3 - कर्ण के कवच-कुंडल : - भगवान कृष्ण यह भली-भांति जानते थे कि जब तक सूर्य से प्राप्त कर्ण के पास उसका कवच और कुंडल है, तब तक उसे कोई नहीं मार सकता। ऐसे में अर्जुन की सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं। उधर देवराज इन्द्र भी चिंतित थे, क्योंकि अर्जुन उनका पुत्र था।
तब कृष्ण ने देवराज इन्द्र को एक उपाय बताया और फिर देवराज इन्द्र एक ब्राह्मण के वेश में पहुंच गए कर्ण के द्वार। देवराज भी सभी के साथ लाइन में खड़े हो गए। कर्ण सभी को कुछ न कुछ दान देते जा रहे थे। बाद में जब देवराज का नंबर आया तो दानी कर्ण ने पूछा- विप्रवर, आज्ञा कीजिए! किस वस्तु की अभिलाषा लेकर आए हैं?
विप्र बने इन्द्र ने कहा, हे महाराज! मैं बहुत दूर से आपकी प्रसिद्धि सुनकर आया हूं। कहते हैं कि आप जैसा दानी तो इस धरा पर दूसरा कोई नहीं है। तो मुझे आशा ही नहीं विश्‍वास है कि मेरी इच्छित वस्तु तो मुझे अवश्य आप देंगे ही।‍ फिर भी मन में कोई शंका न रहे इसलिए आप संकल्प कर लें तब ही मैं आपसे मांगूंगा अन्यथा आप कहें तो मैं खाली हाथ ही चला जाता हूं?
कर्ण ने तैश में आकर जल हाथ में लेकर कहा- हम प्रण करते हैं विप्रवर! अब तुरंत मांगिए। तब क्षद्म इन्द्र ने कहा- राजन! आपके शरीर के कवच और कुंडल हमें दानस्वरूप चाहिए। एक पल के लिए सन्नाटा छा गया। कर्ण ने इन्द्र की आंखों में झांका और फिर दानवीर कर्ण ने बिना एक क्षण भी गंवाए अपने कवच और कुंडल अपने शरीर से खंजर की सहायता से अलग किए और ब्राह्मण को सौंप दिए।
इन्द्र ने तुंरत वहां से दौड़ ही लगा दी और दूर खड़े रथ पर सवार होकर भाग गए। तभी आकाशवाणी हुई, 'देवराज इन्द्र, तुमने बड़ा पाप किया है। अपने पुत्र अर्जुन की जान बचाने के लिए तूने छलपूर्वक कर्ण की जान खतरे में डाल दी है। अब यह रथ यहीं धंसा रहेगा और तू भी यहीं धंस जाएगा।'
बाद में इन्द्र से इससे बचने के लिए कर्ण को वज्ररूपी शक्ति दे दी और कहा कि तुम इस अमोघ वज्र को जिसके ऊपर भी चला दोगे, वो बच नहीं पाएगा। भले ही साक्षात काल के ऊपर ही चला देना, लेकिन इसका प्रयोग सिर्फ एक बार ही कर पाओगे।
कहते हैं कि वे कवच-कुंडल इन्द्र ने स्वर्ग में ले जाकर कहीं सुरक्षित रख दिए थे, जो आज भी कहीं पर रखे हुए हैं।
4- दिव्य धनुष और तरकश : - दधीचि ऋषि ने देश के हित में अपनी हड्डियों का दान कर दिया था। उनकी हड्डियों से 3 धनुष बने- 1. गांडीव, 2. पिनाक और 3. सारंग। इसके अलावा उनकी छाती की हड्डियों से इंद्र का वज्र बनाया गया। इन्द्र ने यह वज्र कर्ण को दे दिया था।
पिनाक शिव के पास था जिसे रावण ने ले लिया था। रावण से यह परशुराम के पास चला गया। परशुराम ने इसे राजा जनक को दे दिया था। राजा जनक की सभा में श्रीराम ने इसे तोड़ दिया था। सारंग विष्णु के पास था। विष्णु से यह राम के पास गया और बाद में श्रीकृष्ण के पास आ गया था। गांडीव अग्निदेव के पास था जिसे अर्जुन ने ले लिया था।
पौराणिक कथाओं के अनुसार एक ऐसा धनुष, तीर और तरकश है जिसका कभी नाश नहीं हो सकता। यह तीर चलाने के बाद पुन: व्यक्ति के पास लौट आता है और तरकश में कभी तीर या बाण समाप्त नहीं होते। सबसे पहले ऐसा ही एक तीर राजा बलि के पास था।
भृगुवंशियों ने राजा बलि से विश्‍वजीत के लिए एक यज्ञ करवाया। उस यज्ञ से अग्निदेव प्रकट हुए और उन्होंने राजा बलि को सोने का दिव्य रक्ष, घोड़े एवं दिव्य धनुष तथा दो अक्षय तीर दिए। प्रहलाद ने कभी न मुरझाने वाली दिव्य माला दी और शुक्राचार्य ने दिव्य शंख दिया। इस प्रकार दिव्य अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होकर राजा बलि ने इंद्र को पराजित कर दिया था। राजा बलि इन दिव्य धनुष और बाण की बदौलत तीनों लोकों पर राज करने लगा था।
उसी तरह की एक कथा है कि श्वैतकि के यज्ञ में निरंतर 12 वर्षों तक घृतपान करने के बाद अग्निदेव को तृप्ति के साथ-साथ अपच भी हो गया। तब वे ब्रह्मा के पास गए। ब्रह्मा ने कहा की यदि वे खांडव वन को जला देंगे तो वहां रहने वाले विभिन्न जंतुओं से तृप्त होने पर उनकी अरुचि भी समाप्त हो जाएगी।
अग्निदेव ने कई बार प्रयत्न किया किंतु इन्द्र ने तक्षक नाग तथा जानवरों की रक्षा हेतु खांडव वन नहीं जलाने दिया। अग्नि पुनः ब्रह्मा के पास पहुंचे। ब्रह्मा से कहा कि अर्जुन तथा कृष्ण खांडव वन के निकट बैठे हैं, उनसे प्रार्थना करें।
तब अग्निदेव ने दोनों से भोजन के रूप में खांडव वन की याचना की। अर्जुन के यह कहने पर भी कि उसके पास वेग वहन करने वाला कोई धनुष, अमित बाणों से युक्त तरकश तथा वेगवान रथ नहीं है। अग्निदेव ने वरुणदेव का आवाहन करके गांडीव धनुष, अक्षय तरकश, दिव्य घोड़ों से जुता हुआ एक रथ (जिस पर कपि ध्वज लगी थी) लेकर अर्जुन को समर्पित किया। बाद में अग्निदेव ने कृष्ण को एक चक्र समर्पित किया।
तदनंतर अग्निदेव ने खांडव वन को सब ओर से प्रज्वलित कर दिया। इन्द्र सहित सभी देवता खांडव वन को बचाने के लिए आए लेकिन उनका सामना कृष्ण और अर्जुन से हुआ। अंततोगत्वा सभी हार गए। खांडव वनदाह से तक्षक नाग, अश्वसेन, मायासुर तथा चार शांगर्क नामक पक्षी बच गए थे। इस वनदाह से अग्निदेव तृप्त हो गए तथा उनका रोग भी नष्ट हो गया।
इसके अतिरिक्त गांडीव धनुष और अक्षय तरकश भी दि